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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ दशम अध्याय ॥ पान ७९१ ॥
गुणा मध्यअवगाहनातें भये सिद्ध हैं । बहुरि संख्याविर्षे एकसमयमें उत्कृष्टपणें एकसो आठ सिद्ध होय हैं । ते तो सर्व थोरे हैं । तिनतें अनंतगुणा पचासताईकी संख्यातें भये सिद्ध हैं । तिनतें असंख्यातगुणा गुणचासतें लगाय पचीसकी संख्याताई भये सिद्ध हैं । बहुरि तिनतें संख्यातगुणे चोईस लगाय एकताईंकी संख्यातें भये सिद्ध हैं । ऐसें जानना । इहांताई टीकाका व्याख्यान है ॥ ऐसें तत्त्वार्थका है अधिगम जातें ऐसा जो मोक्षशास्त्र ताविषै दशम अध्याय सम्पूर्ण भया ॥ स्वर्गापवर्गसुखमाप्तुमनोभिरार्ये । जैनेन्द्रशासनवरामृतसारभूता ॥ सर्वार्थसिद्धिरिति सद्भिरुपात्तनामा । तत्त्वार्थवृत्तिरनिशं मनसा प्रधार्या ॥ १ ॥ याका अर्थ - स्वर्गमोक्षके पावनेकूं है मन जिनका ऐसे आर्य कहिये महंत पुरुष, तिनकर यह तत्त्वार्थकी वृत्ति निरंतर मनकरि धारनेयोग्य है । कैसा है यह ? जिनेंद्रका शासन कहिये मत आज्ञा मार्ग, सोही भया उत्तम अमृत, ताका सारभूत है । बहुरि कैसी है ? सर्वार्थसिद्धि ऐसा सत्पुरुषनिकर पाया है नाम जानें ॥ १ ॥
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तत्त्वा सर्व स्तोक हैं । तिनत संख्याः ।
ण्वन्ति ये परिपठन्ति सुधर्मभक्त्या ॥
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