Book Title: Sarvarthsiddhi Vachanika
Author(s): Jaychand Pandit
Publisher: Kallappa Bharmappa Nitve

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Page 812
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिकांडित जमादजीकृता ॥ दशम अध्याय ॥ पान ७९४ ॥ ENABASUDoctsaaDSweatopati पालना , ताकी उत्तरोत्तर बंधते विशुद्धताके स्थानके विशेष तिनकी प्राप्तिकरि सहित हूवा संता, अत्यंत अभावरूप भये हैं आतरौद्र ध्यान जाके, बहुरि धर्मध्यानके बलते पाया है समाधिका बल जानें, बहुरि आदिके दोय शुक्लध्यान तिनमें क्रमकरि एकविर्षे वर्तमान हूवा संता, पूर्वै कहे जे ऋद्धि तिनकरि युक्त होय तिनविर्षे अनुराग नाही लगावता संता, पूर्वोदित अनुक्रमकरि मोहआदिकी प्रकृतिनिक क्षयकार सर्वज्ञज्ञानकी लक्ष्मीकू वे भोगिकरि पीछे समस्तकर्मका नाशते संसारके बंधनते छुट्या हूवा, जैसैं आनि जेता इंधन होय तेता समस्त दग्धकरि जाके फेरि होने• कछू न रहै, तय उपादानकारणविना फेरि न उपजै बुझि जाय तैसे पूर्व पाया जो पर्याय ताका वियोगः बहुरि आगामी तिस भव होनेका कारणके अभावतै आगामी भवकी उत्पत्तिके अभाव. संसारका अंत भया, ताक् संसारदुःखते रहित होयकरि जामें दुःख नाहीं ऐसा एकांत बहुरि जाका अंत नाहीं ऐसा अत्यंत बहुरि जाकी उपमा नाहीं ऐसा निरुपम बहुरि जामें हीनाधिकपना नाहीं ऐसा निरतिशय जो निर्वाणसुख ताहि यहू आत्मा पावै है । ऐसे तत्वार्थकी भावनाका फल है । ॥ छप्पय ॥ घातिकर्मकू नाशि ज्ञान केवल उपजावै । फेरि बंधके हेतु तास नीडे नहि आवै ।। पूर्वकर्म निर्जरा ठानि सर्व कर्म नशावै । भावकर्महू मेटि शेष क्षायिक रहि जावै ॥ तव ऊरध गमन स्वभाव लहि लोक अंत थावै सदा । इम नित्य अनूपम अमित सुख भरे सिद्ध वंदौ मुदा ॥१॥ atsppasaseatsastertwittervertierrerities For Private and Personal Use Only

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