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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७५६ ॥
एकाग्रचिंतानिरोध कह्या, सो केवलीकै यह नाहीं । यात उपचारकरि ध्यान कहिये । ध्यानका कार्य योगका रुकना अघातिकर्मका नाश होना सो उपचारका निमित्त है। यातें उपचार कहना बनें है । बहुरि सकलपदार्थ जाकै साक्षात् भये हैं तातें ध्यावनेयोग्य ध्येयभी किछू नाहीं है । बहुरि उपयोग नित्य निश्चल भया तातें सदा ध्यानरूपही है । सो या अपेक्षा निश्चयध्यानीभी कहिये । स्यादादीनिकै किछु विरोध नाहीं । बहुरि मोहके नाशतें सोही सुख है । ज्ञानावरण दर्शनावरणके नाशतें अनंतज्ञानदर्शन है। अंतरायके नाश अनंतवीर्य है। बहुरि मुक्ति भये पीछे आयुकर्मके अभावतें फिरि जन्म मरण नाहीं हैं । नामकर्मके अभावतें अमूर्तिकपणा प्रगट होय है । गोत्रकर्मके अभावतें नीच ऊंच कुल नाहीं है । वेदनीयके अभावतें इंद्रियजनित सुखदुःख नाहीं है । ऐसें ध्यानके प्रभावतें आत्मा ऐसा होय है ॥
बहुरि अब ऐसे ध्यानका मुनि उद्यम करै हैं, तब उत्तमसंहननपणाकरि परीषहकी बाधा | सहनेकी शक्ति आपमें जाणे, तब ध्यानयोग्य परिचय करै । सो कहिये हैं । पर्वत गुंफा तथा दरी | कंदरा जहां पर्वतमें जलका प्रवेश निकट होय सो कंदरा बहुरि वृक्षका कोटर नदीकी पुल मसाण
भूमि जीर्ण उद्यान सूना घर इत्यादिमें एकजायगा जहां अवकाश होय सर्प पशु पक्षी मनुष्यका
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