Book Title: Sarvarthsiddhi Vachanika
Author(s): Jaychand Pandit
Publisher: Kallappa Bharmappa Nitve

View full book text
Previous | Next

Page 775
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७५७ ॥ SAGARPRISORRORISARAISISPOSARIPANAPATROENAPANOR गमनागमन नाहीं, तथा निवास नाहीं, जहां अतिउष्णता नाही, अतिशीत नाही, अतिपवन नाही, वर्षा आताप नाही, सर्वतरफतें बाह्य अभ्यंतर विशेष कारणनै रहित ऐसा भूमितल होय, पवित्र होय, जहां स्पर्शभी अनुकूलही होय बाधाकारी नाही, तहां जैसे सुखरूप निराकुलताका | कारण आसनकरि तथा पल्यंकासनकरि शरीरकू सरलकरि अपना अंकविर्षे बावा हस्ततल धेरै, ताकै उपरि जीमणा हस्ततल धरै, नेत्र अति उघाडे नाही, अति मीचे नाही, दंतनिकरि दंतनिके अग्रभाग धारे, किंचित् ऊंचा मुख कीये सरल सूधा कडि कीये सूधे स्तंभवत् मूर्ति जाकी, बहुरि । अंतःकरणके अभ्यासकार गंभीर है वाणी जाकी, प्रसन्न है मुखवर्ण जाका, नेत्रनिकी टिमकार | रहित है सौम्यदृष्टि जाकी, बहुरि दूरि भये है निद्रा आलस्य काम राग रति अरति शोक हास्य भय द्वेष ग्लानि जाके, मंदमंद श्वासोश्वासका है प्रचार जाके इत्यादि क्रियासहित साधू नाभीके उपरि | हृदयविर्षे तथा मस्तकवि तथा अन्यप्रदेशविर्षे मनकी वृत्ति स्थापि जैसा परिचय विचारै तैसा | | विषय मन लगाय मोक्षका इच्छक प्रशस्तध्यान• ध्यावै ॥ - इहां कोई पूछे है, शुक्लध्यान ध्यावै ताकै ध्येयकू ध्यावनेकी इच्छा है कि नाही ? ताका | समाधान, जो, इच्छा है सो मोहका उदयका कार्य है, सो जहांताई अनुभवमें मोहका उदय रहै | For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824