Book Title: Sarvarthsiddhi Vachanika
Author(s): Jaychand Pandit
Publisher: Kallappa Bharmappa Nitve

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Page 792
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ दशम अध्याय । पान ७७४ ॥ PAGAPRINSIOPANSIODONGARPRASARAMANADANGApargama ज्ञान उपजै है। तहां प्रश्न, जो, इस सूत्रमें समास करणा न्याय्य था, जाते सूत्र लघु होता। कैसे सो कहिये हैं । यामें क्षयशब्द दोय आये, सो एक तौ क्षयशब्द घटता बहुरि दूसरी विभक्ति घटती बहुरि चशब्द न होता, तब मोहज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयात्केवलम् ऐसा लघुसूत्र बणता। ताका समाधान आचार्य कहै हैं । यह तो सत्य है । परंतु यहां विशेष है । प्रथम तो च्यारि घातिकर्मका क्षयका अनुक्रम कहनेके अर्थि वाक्यभेदकरि निर्देश कीया है । पहली मोहका क्षयकरि अंतर्मुहूर्त क्षीणकषाय नाम पाय तापीछै युगपत् ज्ञानावरण दर्शनावरण अंतराय इन तीनीनिका क्षय करि केवलज्ञानकू प्राप्त होय है । एसैं तिनका क्षयतें केवलज्ञानकी उत्पत्ति होय है । याहीतें हेतु है लक्षण जाका ऐसी पंचमीविभक्तिका निर्देश कीया है। तहां पूछे है, मोहका क्षय पहली कौन रीति करै है ? सोही कहिये हैं। तहां प्रथम तौ भव्य होय, बहुरि सम्यग्दृष्टि होय, बहुरि परिणामकी विशुद्धताकरि वर्द्धमान होय, सो जीव असंयतसम्यग्दृष्टि संयतासंयत प्रमत्त अप्रमत्त इन च्यारि गुणनिविर्षे कोई गुणस्थानमें मोहकी सात प्रकृति मिथ्यात्व सम्यमिथ्यात्व सम्यक्त्वप्रकृति अनन्ता. | नुबन्धी क्रोध मान माया लोभ इनका क्षयकरि क्षायिक सम्यग्दृष्टि होयकरि जब क्षपकश्रेणी चढ|| वाने सन्मुख होय अधःप्रवृत्तिकरणकू अप्रमत्तगुणस्थानविर्षे पायकरि अपूर्वकरणपरिणामका प्रयोग Mirreriwixixixixivirseravertworrertaireritvists For Private and Personal Use Only

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