Book Title: Sarvarthsiddhi Vachanika
Author(s): Jaychand Pandit
Publisher: Kallappa Bharmappa Nitve

View full book text
Previous | Next

Page 800
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ दशम अध्याय ॥ पान ७८२ ॥ | अमूर्तिकप्रदेशनिका आकार है । बहुरि प्रश्न, जो, शरीरकै आकार शरीरमें रहै, जेतें रहै है । अर जीवका प्रदेश स्वाभाविक लोकके आकार है, सो जब शरीरका अभाव भया तब लोकाकाशके प्रदेश परिमाण विस्तया चाहिये, यह प्रसंग आवै है । ताका समाधान, जो, यह दोष नाहीं है । जातें | विसर्पणाका कारणका अभाव है । नामकर्मका संबंध संकोच विस्तार... कारण था, ताका अभाव भया । तब फेरि संकोच विस्तार होनेका अभाव है । बहुरि प्रश्न, जो, ऐसें है, कारणके अभावतें संकोच विस्तारका अभाव है, तो गमनका कारणकाभी अभाव है। तातें ऊर्ध्वगमनभी न प्राप्त होगा, जैसे नीचा ऊंचा तिर्यग्गमन नाही; तैसेंही ऊर्ध्वगमनभी नाहीं । ऐसें होतें जहां मुक्त भया तहांही अवस्थान चाहिये । ताका समाधानका सूत्र कहै हैं ॥ तदनन्तरमूर्व गच्छत्यालोकान्तात् ॥५॥ ___ याका अर्थ- सर्वकर्मका अभाव भयेपी, जीव ऊर्ध्वगमन करै है, सो लोकके अंतताई जाय है । बहुरि इहां तदनंतर कहिये ताके अनंतर, सो कौंन ? सर्वकर्मका अभाव होना ताके अनं- | तर । बहुरि इहां आलोकान्तात् में आङ् उपसर्ग है सो अभिविधिअर्थमें है । तातें ऐसा अर्थ | भया, जो, लोकके अंतताई गमन है, आगें अलोकमें नाहीं है । यातें ऐसाभी जानिये, जो, | For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824