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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ दशम अध्याय ॥ पान ७८० ॥
॥ औपशमिकादिभव्यत्वानां च ॥३॥ याका अर्थ - जीवके पूर्व भाव औपशमिक आदि कहे थे, तिनमैं औपशमिक अर आदि शब्दतें अन्य अर पारिणामिकमें भव्यत्व इनकाभी अभावतें मोक्ष है । इहां भव्यका ग्रहण तौ अन्यपारिणामिकका निषेधके अर्थि है। जीवत्व आदि पारिणामिकका मोक्षमें अभाव नाहीं है । तातें पारिणामिकमें तौ भव्यत्वका औपशमिक आदि भावनिका अभावतें मोक्ष होय है, ऐसा जानिये । इहां तर्क, जो, द्रव्यकर्मका नाश होते भावकर्मका नाश सामर्थ्यतेही जान्या जाय है । तातें भाव है सो तौ द्रव्यके निमित्ततें होय है । जब द्रव्यकर्मका नाश भया, तब भावकर्मका नाश होयही है। ताका समाधान, ऐसा एकान्त नाहीं है, जो, कारणका अभाव होते कार्यकाभी अवश्य अभाव होय । जैसैं घट कार्य है सो दंड आदि कारणते उपजै है, सो दंडआदिका अभाव होतें घटका नाश नाहीं देखिये है। तातें सामर्थ्यकरि जानिये है। तोऊ ताके स्पष्ट करनेके अर्थि फेरि कहने में दोष नाहीं है ।।
आगे शिष्य कहै हैं, जो, मोक्ष भावनिका अभावरूप है तो औपशमिक आदि भावनिके अभावकीज्यों सर्व क्षायिकभावनिकीभी वृत्ति होते मुक्तजीवका नाम ठहरसी, अभावमात्र मोक्ष
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