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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ दशम अध्याय ॥ पान ७८६ ॥
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अनुयोगनिकरि सिद्धनिकं भेदरूप करने । तहां दोय नय लगावणी, प्रत्युत्पन्नग्राहकनय भूतप्रज्ञापननय । इन दो नयनिकी विवक्षाकरि भेद साधना । सोही कहिये हैं । तहां प्रथमही क्षेत्रकरि तौ कौन क्षेत्रवि सिद्ध होय हैं ? प्रत्युत्पन्नग्राहीनयकी अपेक्षाकरि सिद्धक्षेत्रविषै अथवा अपने आत्माके प्रदेशनिविषै सिद्ध होय है, अथवा आकाशके प्रदेशनिविषै सिद्ध होय है ऐसें कहना । अर भृतप्रज्ञापननया पेक्षाकरि जन्मकी अपेक्षा तौ पंद्रह कर्मभूमिका जन्म्या जवि तहां सिद्ध होय है । बहुरि हांका जन्म्या कोई देवआदि अन्य क्षेत्रमें लै जाय तौ ढाई द्वीप मनुष्यनिका क्षेत्र है, तिस सर्वही क्षेत्र सिद्ध होय हैं । इहां प्रत्युत्पन्नग्राही नय वर्तमानमात्रपदार्थ ग्रहण करे है, सो ऐसा नय ऋजुसूत्र है । तथा शह समभिरूढ एवंभूतभी याही नयका परिवार है । बहुरि भूतनय नैगम है ! बहुरि कालकर कौनसे कालमें सिद्ध होय हैं ? तहां प्रत्युत्पन्नग्राही नयकी अपेक्षाकरि एकसमयविषही सिद्धगति प्राप्त होय हैं । बहुरि भूतप्रज्ञापननयकी अपेक्षाकरि सामान्यकरि उत्स र्पिणी अवसर्पिणी इन दोऊही कालविषै जीव सिद्ध होय हैं । बहुरि विशेषकर अवसर्पिणका सुषमदुःषम जो तीसरा काल अंतका भागविषै उपज्या अर दुःषमसुषमा जो चौथा काल तिस सर्वविषै उपज्या जीव सिद्धगति पावे है, सो दुःषमा पांचमां कालमें मोक्ष पावें है । अर दुःषमा जो पांचमां
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