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॥ सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ दशम अध्याय ॥ पान ७७९ ॥
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| सिद्ध होय है, जो, एकदेश कर्मका क्षय है, सो निर्जरा है, यातेंही तिस निर्जराका लक्षणका
सूत्र न्यारा न कीया। इहां प्रश्न, जो, कर्म तौ अनादिके हैं, तातें जिनका आदि नाही . ताका अंतभी नाही चाहिये, तातें कर्मका नाश कल्पना युक्त नाहीं। ताका समधान, जो, यह एकांत नाहीं । जाते प्रत्यक्ष देखिये है, जाका आदि नाहीं ताका अंत है। जैसे बीज जे अन्नआदि हैं, तिनका संतान तो आदिरहित है। अरु अमिआदिकरि बीज दग्ध होय जाय तब फेरि
संतांन नाहीं होय है; तैसें मिथ्यादर्शन आदिका संतान अनादि है। सो ध्यानरूप अमिकरि | कर्मबीज दग्ध होय तब संसाररूप अंकुराके उपजनका अभावतें मोक्ष होय है। बहुरि द्रव्यकर्म हैं ते द्रव्यरूप पुद्गलपरमाणुके स्कंध हैं, सो कर्मरूप परिणमना पर्याय है, सो तिस पर्यायका नाश है। जीवके संबंधते अत्यंत विनाश है । पुद्गलद्रव्यपणाकरि विनाश नाहीं है । बहुरि मोक्ष ऐसा शब्द मोक्ष असने धातुका निपजै सो भावसाधन है। आत्मातें कर्मका न्यारा होना मात्र क्रियाकू मोक्ष कहिये है ऐसा जानना ॥
आगें पूछे है कि, ए द्रव्यकर्मकी प्रकृति हैं ते पुद्गलमयी हैं, तिनका अभावहीते मोक्ष निश्चय कीजिये है, कि भावकर्मकाभी अभाव कहिये ? ऐसें पूछे सूत्र कहै हैं
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