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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ दशम अध्याय ॥ पान ७७७ ।।
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| होय नाही, तातें पहलेही अभाव है, सो तौ अयत्नसाध्य है । अर यत्नसाध्य कहिये हैं, असंय
तसम्यग्दृष्टि आदि च्यारि गुणस्थाननिविर्षे कोई एक गुणस्थानविर्षे मोहनीयकर्मकी सात प्रकृतिका क्षय करै है। बहुरि निद्रानिद्रा; प्रचलाप्रचला; स्त्यानगृद्धि; नरकतिर्यंचगति; एकेंद्रिय, दींद्रिय, वींद्रिय, चतुरिंद्रिय ए च्यारि जाति; नरकतिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य; आताप; उद्योत; स्थावर; सूक्ष्म; साधारण इन सोलहप्रकृतिनिका अनिवृत्तिवादरसांपरायगुणस्थानविर्षे युगपत् क्षय करै है । बहुरि तातें परै तिसही गुणस्थानमें अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरण आठ कषाय क्षय करै है । बहुरि तिसही गुणस्थानमें अनुक्रमतें नपुंसक्वेद अर स्त्रीवेदकू क्षय करै है । बहुरि तहांही नोकषाय षद् हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा इनकू एककाल क्षय करै है । तापीछे तिसही गुणस्थानमें अनुक्रमकरि पुरुषवेद संज्वलन क्रोध मान माया इनका अत्यंत नाश करै है । ऐसें छत्तीस प्रकृ. तिकी नवमें गुणस्थानविर्षे व्युच्छित्ति है । बहुरि लोभसंज्वलन सूक्ष्मसांपराय दशमगुणस्थानविर्षे नाशकू प्राप्त होय है । बहुरि क्षीणकषाय बारमा गुणस्थान जो छद्मस्थ वीतराग ताके उपांत्यसमय
जो अंतसंयमतें पहला समय ताविर्षे निद्रा प्रचला ए दोय क्षय होय हैं । बहुरि ताके अंतके | समय पांच ज्ञानावरण च्यारि दर्शनावरण पांच अंतराय इन चौदह प्रकृतिनिका क्षय होय है ।
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