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॥ सर्वार्थसिद्धिषचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७५९ ॥
ఆధారణండురందనుండగులందరకుండined
जाके, निपुणपणातें रोकी है शरीरकी क्रिया जानें, मंद है श्वासोश्वास जाकै, भलेप्रकार निश्चित कीया है अभिप्राय जानें, क्षमावान् है, परिषहादिकतें चले नाहीं है, ऐसा होयकरि बाह्य कहिये अन्यद्रव्यसंबंधी द्रव्यपरमाणु भावपरमाणु अर अभ्यंतर कहता अपने जे द्रव्यपर्याय तिनकू ध्यावता | संता अर्थव्यंजन काय वचन इनकू पलटता संता ध्यावे है, सो याहीतें ऐसा जानिये है, जो व्यक्त इच्छा याकै नाही, क्षयोपशम उपयोग है, सो मनके द्वारा विनाइच्छा पलटै है, आप | ज्ञाता द्रष्टाही है ॥ आगें पूछे हैं, कि, सम्यग्दृष्टि सर्वहीकै कर्मनिकी निर्जरा समान होय है कि | | किछु विशेष है ? ऐसें पूछे सूत्र कहै हैं
॥ सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्त
मोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः ॥४५॥ ___ याका अर्थ- सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनंतानुबंधीका वियोजक, दर्शनमोहक्षपक, उप| शमक तीन गुणस्थान, उपशांतमोह ग्यारमा गुणस्थान, क्षपक तीनि गुणस्थान, क्षीणमोह | | बारहवां गुणस्थान, जिन केवली ऐसे दश स्थाननिविर्षे अनुक्रमतें असंख्यात गुणी कर्मकी निर्जरा हा होय है । ते ए सम्यग्दृष्टिकू आदि लेकर दशस्थान कहे, तिनविर्षे अनुक्रमतें असंख्यातगुणनिर्जरा
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