Book Title: Sarvarthsiddhi Vachanika
Author(s): Jaychand Pandit
Publisher: Kallappa Bharmappa Nitve

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Page 784
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७६६ ॥ tareereasortasticoatosarvertiseases इहां कोई कहै, जो, ए दोऊ तौ जाकै होय अर व्रतका भंग भया होय, ताकै निग्रंथपणा ठहस्सा, सो तुम पुलाककै मूलवतका कोई काल क्षेत्रके वशतें व्रतका भंग कह्याही है । ऐसें होतें तो गृहस्थकैभी निग्रंथपणा आवैगा। जातें व्रतका भंगवालेकै निग्रंथपणा कह्या तौ गृहस्थकैभी कहै । ताका समाधान कीया है, जो, गृहस्थकै निग्रंथरूप जैसा कह्या नम दिगंबरमुद्रा | सो नाहीं है। तातें ताकै निर्मथपणाका प्रसंग नाहीं है । बहुरि कोई कहै, जो, कोई नमलिंगी | भेषी होय ताकै निग्रंथपणा आवेगा। ताकू कहिये, जाकै सम्यग्दर्शन नाहीं तातें नम होतेभी | निग्रंथपणा नाहीं है दोऊ भये निर्मथ नाम पावै ॥ बहुरि श्लोकवार्तिकमें कही है, जो, ए पुलाकादि पाचुंही निग्रंथ निश्चयव्यवहार दोऊन यकरि | साधि कहे है, यातें जे वस्त्रादिक ग्रंथकरि संयुक्त हैं ते निग्रंथ नाहीं हैं। जातें बाह्यपरिग्रहका सद्भाव होय तौ अभ्यंतरका ग्रंथका अभाव होय नाहीं । जे श्वेतांबरादिक बाह्य परिग्रह वस्त्रादिक होतेभी जैसा निर्यथपणा आगमयुक्तिकरि सिद्ध होय है तैसा कहै हैं, ताका वे हेतु कहै हैं, जो, परियह तो मूर्छा है, सो वस्त्रादिकमें मूर्छा नाही, तातै ते परिग्रहसंज्ञा न पावै ऐसें कहै हैं । | तिनकू कहिये, जो, ऐसा बाह्यपरिग्रह होतेंभी मूर्छा न कहो हो, तो स्री धन आदि बाह्य || erasacreralissertaireatreatmissertairserasachcourttire For Private and Personal Use Only

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