________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। नवम अध्याय ॥ पान ७६९ ॥
नाहीं अर उत्तरगुणनिमें कोईक विराधना लगावै, सो प्रतिसेवना है । बहुरि कषायकुशील निग्रंथ स्नातकनिकै प्रतिसेवना नाहीं है । जाका त्याग होय ताळू कोई कारणकरि ग्रहण करि ले तत्काल सावधान होय फेरि न करै सो प्रतिसेवना कहिये, याकू विराधनाभी कहिये । बहुरि तीर्थ कहता | सर्व तीर्थंकरनिके समयवि सर्वही होय हैं ।
बहुरि लिंग दोयप्रकार है, द्रव्यलिंग भावलिंग । तहां भावलिंगकरि तो पांचूही भावलिंगी हैं, सम्यक्त्वसहित हैं, मुनिपणासू निरादरभाव काहूकै नाहीं है । बहुरि द्रव्यलिंगकरि तिनमें भेद है । कोई आहार करे है, कोई अनशन आदि तप करै है, कोऊ उपदेश करै है, कोऊ अध्ययन | करै है, कोऊ तीर्थविहार करै है, कोऊ ध्यान करै है, ताके अनेक आसन करै हैं, कोऊको दोष | | लागै है, प्रायश्चित्त ले है, कोऊ दोष नाहीं लगा है, कोऊ आचार्य है, कोऊ उपाध्याय है, | | कोऊ प्रवर्तक है, कोऊ निर्यापक है, कोऊ वैयावृत्य करै है, कोऊ ध्यानविर्षे श्रेणीका प्रारंभ करै
है, कोऊकौं केवलज्ञान उपजै है, ताकी बाह्य बडी विभूतिसहित महिमा होय है इत्यादि मुख्य | गौण बाह्यप्रवृत्तिकी अपेक्षा लिंगभेद है । ऐसा न जानना, जो, नम दिगंबर यथाजातरूप सामान्य | सर्वकै है, तातें भेद है । यह तो सर्वकै समान है ऐसो न । कोई श्वेत पीत रक्त शाम आदि वस्त्र ||
For Private and Personal Use Only