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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७६३ ॥
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सहित शालीका है, ताकी उपमा इनकू देकरि संज्ञा कही है । सो मूलगुणनिविर्षे कोई क्षेत्र कालके वशतें विराधना होय है । तातें मूलगुणमें अन्य मिलाय भया, केवल न भये, तातें यह उपमा दे संज्ञा कही है । बहुरि निग्रंथपणा जो सर्वथा बाह्य आभ्यंतर परिग्रहका अभाव तिसका तौ जिनकै उद्यम है, बहुरि व्रत जिनके अखंडित है, मूलगुण खंडित नाहीं करै हैं, बहुरि शरीर उपकरण इनकी जो विभूषा कहिये सुन्दरता ताका अनुवर्ती है कछू सुन्दरताका अनुराग है, जातें संघके नामक आचार्य होय हैं तिनके प्रभावनाआदिका अनुराग होय है, तिनके निमित्ततें शरीर तथा कमंडलू पिच्छिका पुस्तक तथा ताके बंधन तिनकी सुंदरताकी अभिलाष उपजै है, चैत्यालयके उपकरण
आदिकी सुंदरताका अनुराग होय तथा शरीरकी सुंदरताका अनुराग संघनायककै कदाचित् उपजै ऐसे शरीर उपकरणानुवर्ती कहिये ॥
बहुरि नाहीं मिट्या जो परिवारका अनुमोद कहिये हर्ष सोही भया छेद याते शवल कहिये चित्रवर्ण ताकरि युक्त है। इस विशेषणतें ऐसा जानना, ज राग था, सोही अनुराग अब संघरौं भया । इनके एकही परिवार है, सो परमनिग्रंथअपेक्षा याकू चित्रवर्ण आचरण कहिये । वीतरागता सरागताके मिलनेते चित्रलाचरण कह्या याहीतें बकुश ऐसा
अनु
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