________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७६० ॥ सहित है । सोही कहिये हैं। तहां भव्य पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक पूर्व कही जे काललब्धि आदि लब्धि तिनका है सहाय जाकै, बहुरि परिणामकी विशुद्धताकरि वर्द्धमान है, अनुक्रमते अपूर्व कारण आदि जे करणके परिणाम तेई भई पैडी ताकरि ऊंचा चढता ऐसा जीव ताकै जो अतिशय करि बहुत निर्जरा होय है, सो इस स्थानकतें आगें दशस्थाननिविर्षे असंख्यातका गुणाकार है, सो ऐसा जीव जब प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी प्राप्ति सोही भया निमित्त ताके निकट होते सम्यग्दृष्टि होता संता असंख्यगुणनिर्जरावान् होय है । बहुरि सोही जीव चारित्रमोहका भेद जो अप्रत्याख्यानावरणकषाय ताके क्षयोपशमपरिणामकी प्राप्तिका कालविर्षे श्रावक होता संता असंख्यातगुण निर्जरावान् होय है । बहुरि सोही जीव चारित्रमाहका भेद जो प्रत्याख्यानावरंणकषाय ताका क्षयोपशमकी प्राप्तिका कालवि विशुद्धपरिणामके योगते विरत नाम पावै, तब तिस श्रावकते असं ख्यातगुण निर्जरावान मुनि होय है । बहुरि सोही जीव अनंतानुबंधी कषायकी चौकडीकू परिणामकी विशुद्धताके बलते अप्रत्याख्यानावरण आदि कषायरूप संक्रमण प्रधानकरि परिणमता संता
अनंतानुबंधीका वियोजक नाम कहावता संता तिस विरतसंयमी मुनितें असंख्यातगुण निर्जरा|| वान मुनि होय है । बहुरि सोही जीव दर्शनमोहकी तीनि प्रकृति सोही भया तृणका समूह ताकू ||
For Private and Personal Use Only