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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७५४ ॥
तीर्थकर तथा अन्य केवली इंद्रनिकै आवनेयोग्य स्तुति करनेयोग्य पूजनेयोग्य उत्कृष्टिकरि कछू घाटि कोटिपूर्व आयुकी स्थितिताई विहार करै है । सो जब अंतर्मुहूर्त आयु अवशेष रहै तब जो आयुकमकी स्थितिकै समानही वेदनीय नाम गोत्र कर्मकी स्थिति रह जाय तब तो सर्व वचनमनयोग अर बादरकाययोगकू निरोधरूप करि सूक्ष्मकाययोगकू अवलंबै तब सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानके ध्यावनेयोग्य होय है । बहुरि जो जब अंतर्मुहुर्त आयुकर्मकी स्थिति रहै तब वेदनीय नाम गोत्रकर्मकी स्थिति अधिक रही होय तो यह सयोगी भगवान् अपना उपयोगका अतिशयकरि शीघ्र कर्मका पचा. वनेकी अवशेष कर्मरजका झाडनेकी शक्तिके स्वभावते दंड कपाट प्रतर लोकपूरण ए च्यारि क्रियारूप आत्माका प्रदेशनिका फेलना, सो च्यारि समयमें करि अरु बहुरि च्यारिही समयमें संकोच्या है प्रदेशनिका फैलना जानें अर समानस्थिति कीये है च्यारि अघातिकर्म जानें ऐसे पहले शरीरममाण था तिसही प्रमाण होयकरि सूक्ष्म काययोगकरि सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानकू ध्यावै है । यह केवल समुद्धातकरि भया हो है । इहां उपयोगके अतिशयके विशेषण ऐसे हैं । सामायिक है सहाय जाकै, विशिष्ट है कारण कहिये परिणामनका विशेष जाकै, महासंवरस्वरूप है ऐसे तीनि विशेषणरूप उपयोगका अतिशय है ।
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