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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७५३ ॥
मनकरि ध्यावता संता मोहकी प्रकृतिनिळू उपशम करता संता तथा क्षय करता संता पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यानका धारी होय है ॥
इहां दृष्टात ऐसा, जैसें, कोई वृक्षकू काटने लगा ताकै शस्त्र कुहाडी तीखी न होय तब थोडा थोडा अनुक्रमः काटै, तेसैं इस ध्यानकेविर्षे मनकी पलटनि है सोहू शक्तिका विशेष है । तातें अनुक्रमः मोहकी प्रकृतिका क्षय तथा उपशम करै है । बहुरि सोही ध्यानी जब समस्तमोहनीयकर्मळू दग्ध करनेकू उत्साहरूप होय तब अनंतगुणी विशुद्धताका विशेषफू आश्रवकरि बहुत जे ज्ञानावरणकर्मकी सहाय करनेवाली कर्मप्रकृति तिनकी बंधकी स्थितिकू घटावता तथा क्षय करता संता अपना रुतज्ञानका उपयोगरूप हूवा संता नाही रचा है अर्थव्यंजनयोगका पलटना जानें ऐसें निश्चल मनस्वरूप होता संता क्षीण भये हैं कषाय जाके ऐसा वैडूर्यमणिकीज्यों मोहका लेपः रहित भया ध्यानकरि फेरि तिसते निवर्तन न होय पलटै नाही, ऐसे एकत्ववितर्कअवीचार दूसरा | होय है । ऐसेंही सो ध्यानी एकत्ववितर्क शुक्लध्यानरूप अमिकरि दग्ध कीये है घातिकर्मरूप ईंधन
जानें अर देदीप्यमान भया है केवलरूप किरणनिका मंडल जाकै ऐसा बादले के पिंजरमें छिप्या था | जो सूर्य जैसे ताकू दूरि भये निकले तब बहुत देदीप्यमान सोहै, तैसें सोहता संता भगवान्
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