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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७५६ ॥ एकाग्रचिंतानिरोध कह्या, सो केवलीकै यह नाहीं । यात उपचारकरि ध्यान कहिये । ध्यानका कार्य योगका रुकना अघातिकर्मका नाश होना सो उपचारका निमित्त है। यातें उपचार कहना बनें है । बहुरि सकलपदार्थ जाकै साक्षात् भये हैं तातें ध्यावनेयोग्य ध्येयभी किछू नाहीं है । बहुरि उपयोग नित्य निश्चल भया तातें सदा ध्यानरूपही है । सो या अपेक्षा निश्चयध्यानीभी कहिये । स्यादादीनिकै किछु विरोध नाहीं । बहुरि मोहके नाशतें सोही सुख है । ज्ञानावरण दर्शनावरणके नाशतें अनंतज्ञानदर्शन है। अंतरायके नाश अनंतवीर्य है। बहुरि मुक्ति भये पीछे आयुकर्मके अभावतें फिरि जन्म मरण नाहीं हैं । नामकर्मके अभावतें अमूर्तिकपणा प्रगट होय है । गोत्रकर्मके अभावतें नीच ऊंच कुल नाहीं है । वेदनीयके अभावतें इंद्रियजनित सुखदुःख नाहीं है । ऐसें ध्यानके प्रभावतें आत्मा ऐसा होय है ॥ बहुरि अब ऐसे ध्यानका मुनि उद्यम करै हैं, तब उत्तमसंहननपणाकरि परीषहकी बाधा | सहनेकी शक्ति आपमें जाणे, तब ध्यानयोग्य परिचय करै । सो कहिये हैं । पर्वत गुंफा तथा दरी | कंदरा जहां पर्वतमें जलका प्रवेश निकट होय सो कंदरा बहुरि वृक्षका कोटर नदीकी पुल मसाण भूमि जीर्ण उद्यान सूना घर इत्यादिमें एकजायगा जहां अवकाश होय सर्प पशु पक्षी मनुष्यका AFARPANAGAPAGAPATPARINCIPRONICIANPROVARANASPARAMPA For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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