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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kallassagarsuri Gyanmandir SAPTOPAISASARPRISIOPORATOPANIPAPASCOPosperoranspa ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७५५ ॥ बहुरि तापीछे लगताही समुछिन्नक्रियानिवर्ति ध्यानका आरंभ करै है। तहां उच्छिन्न कहिये | दृरि भया है श्वासोश्वासका प्रवर्तन जहां, बहुरि सर्व काय वचन मनयोग सर्वप्रदेशनिका चलना | जहां दूरि भया है, यातें याकू समुच्छिन्नक्रियानिवर्ति ऐसा नाम कहिये है । तिस ध्यानविर्षे सर्व बंध अर सर्व आश्रवकरि निरोधरूप अवशेष कर्मका झाडनेरूप सामर्थ्य की प्राप्ति हैं सो इस अयोगकेवली भगवानके सम्पूर्ण यथाख्यातचारित्र ज्ञान दर्शन भये हैं, ते सर्व संसारके दुःखके जालका जो संबंध ताका नाश करनेवाले हैं, साक्षात लगताही मोक्षके कारण हैं, ऐसे प्रगट भये हैं । सो यह भगवान तिस कालविर्षे तिस ध्यानके अतिशयरूप अमिकरि दग्ध भयो जो सर्वकर्मरूप मलका कलंक तातें जैसें अनिके प्रयोगते धातुपाषाणरूप समस्त कीट जाका वलि जाय दृरि होय, तब शुद्ध सुवर्ण नीसरे, तैसें पाया है आत्मस्वरूप जानें ऐसा होय निर्वाणकू प्राप्त होय है । ऐसें यह दोय प्रकार बाह्य आभ्यंतरका तप है, सो नवीनकर्मके आश्रवका निरोधका कारणपणातें तो | संवरका कारण है । बहुरि पूर्वकर्मरूप रजके उडावने• कारण है । तातें निर्जराका कारणभी है ।। इहां विशेष लिखिये हैं । केवलीकै चिंतानिगेधका अभाव है । जाते क्षयोपशमज्ञानकी | मनके द्वारा प्रवृत्ति होय सो चिंता है । क्षायिकज्ञान में उपयोग निश्चल है अर ध्यानका लक्षण For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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