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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६७८॥
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| पूर्वक है। सो तौ अकुशलमूला कहिये । जाते याकरि किछु कल्याण नाहीं। बहुरि परीषहके | जीतते होय, सो कुशलमूला कहिये । याकी दोय रीति हैं, एक तो आगामी शुभकर्मका बंध करै | है, बहुरि दूजी केवल निर्जराही है, आगामी बंध नाहीं करे है । इहां ऐसा जानना, जो, किछु
रागके आशयतें होय तहां तौ शुभकर्म बंधे है अर जहां रागका आशय न होय केवल शुद्धो. | पयोगही होय तथा बंधका अभाव है। जहांजहां रागका आशय हीन तथा अधिक होय तहां | तैसा जानना । ऐसा निर्जराके गुणदोषका चिंतवना, सो निर्जरानुप्रेक्षा है। ऐसे याके चिंतवनयुक्त पुरुषकै कर्मकी निर्जरा करने के अर्थि प्रवृत्ति होय है ॥
लोकके संस्थान आदिकी विधि पहले कही थी, सर्वतरफ अनंत जो आकाश ताके बहु. मध्यदेशबीचिही बीचि तिष्ठता जो लोक ताका संस्थान आदि स्वभावका चितवन करना, सो लोकानुप्रेक्षा है। ऐसें याकू चिंतवनेतें पुरुषनिकै यथार्थ लोकके जाननेते ज्ञान संशयादिकरहित उज्वल होय है ।। सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र आदि जो अपना स्वभाव ताकी लब्धि ताकी अप्राप्ति सो बोधिदुर्लानुपेक्षा है। तहां एकनिगोदियाके शरीरविर्षे जीव सिद्धराशि” अनंतगुणे हैं । तिन शरीरनितें सर्वलोक अंतरहित भया है। यह सर्वज्ञके आगमकरि प्रमाण है । यातें बेइन्द्रियआदि जीव
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