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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता || नवम अध्याय ॥ पान ६८९ ॥
अनुरागतैं सदा उद्यम होय है । याका व्याख्यान ऐसा भी है । जो जीवके धर्म गुणस्थान जीवस्थान मार्गणास्थान चौदह चौदह कहै हैं, सो धर्मस्वाख्यातत्व कहिये भलेप्रकार आख्यातपणा है । तिनका चितवन करै । सो गुणस्थानके नाम तो पहले कहेही थे । बहुरि जीवसमास चौदहमी पूर्वै कहे थे । बहुरि मार्गणास्थान गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञी, आहारक ए चौदह हैं, तेभी पूर्वै कहे थे । तिनिपरि गुणस्थान जीवस्थान आगममें कहे हैं, तैसें लगावणे । तिनका स्वरूप चितवन करते जीवके धर्मनिकी प्रवृत्ति नी, जाणी जाय है । तातें यथार्थज्ञान होय है । निश्चयव्यवहाररूप धर्मका स्वरूप जानिये है ऐसें जानना । ऐसें अनित्यत्व आदि अनुप्रेक्षा के निकट उत्तमक्षमादिधर्मके धारणतैं महान संवर होय है । बहुरि धर्म के अरु परिषहनिकै मध्य अनुप्रेक्षा करनेतैं ऐसा जनाया हैं, जो यह अनुप्रेक्षाचिंतवन करनेवाला पुरुष धर्मनिकूं तो पाले है रक्षा करे है अर परीषहनिकूं जीतने का उत्साह करे है ||
आगे पूछे हैं, ते परीषद कौन हैं बहुरि तिनकूं कौनअर्थि सहिए है ? ऐसें पूछें सूत्र कहे हैं॥ मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः ॥ ८ ॥
याका अर्थ - मार्ग कहिये संवर तातें न छूटनेके अर्थि तथा कर्मकी निर्जराके अर्थ परि
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