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॥ सर्वार्थसिद्धिषचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६९६ ॥
परिहारके अर्थि आयुके अंतपर्यंत अस्नानव्रतके धारी हैं। बहुरि तीबसूर्यको किरणनिकरि भया | जो ताप ताकरि उपजे जे पसेव तिनकरि आला भया शरीर ताविर्षे पवनकरि उड्या जो रज
सो जिनकें आय लग्या है । बहुरि पावखाज दाधकरि उपजी जो खाजी ताके होतें खुजावने | मर्दन करना घसना आदि क्रियाकरि रहित हैं मूर्ति जिनकी । बहुरि अपने लग्या जो मल | ताका दूरि करनेवि तथा परके मल देखि मन मलिन करनेविर्षे नाहीं लगाया है चित्त ज्यां।
सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप जलके प्रक्षालनेकरि कर्मरूप मलके धोवनेके अर्थि सदा उद्यमरूप है बुद्धि जिनकी। ऐसे मुनिके मलपीडाका सहन कहिये । इहां कोई कहै, केशनिका लोंच करनेविर्षे तथा तिनकी संस्कार न करनेतें बडा खेद होय है, ताकुं सहे हैं, सो यहभी परीषह क्यों न गिण्या ? ताका समाधान, जो, यह परिषह मलसामान्यके ग्रहणमें गर्मित है तातें जुदा न गिण्या हैं॥ १८॥
मान अपमानविर्षे समबुद्धि होय , सो सत्कारपुरस्कारपरीषहका सहन है । तहां पूजा प्रशंसा स्वरूप तो सत्कार कहिये । अर महान क्रियाके आरंभक्र्षेि अग्रेसर करना बुलावना सो पुरस्कार कहिये । सो मुनिनिका सत्कार पुरस्कार कोई न करै तौ ऐसा न विचारै जो मैं बहुतकालतें
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