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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७०१ ॥
समाधान, जो, यह तौ सत्य है । परंतु वेदनाका अभाव होतें भी द्रव्यकर्मके सद्भावकी अपेक्षाकरि परीका उपचार कीजिये है । जैसें समस्तज्ञानावरणकर्मका नाश भये युगपत् सर्वपदार्थका जनावनेवाला जो केवलज्ञानरूप अतिशय होतैं चिंताका निरोधका अभाव होतेंभी ध्यानका फल जो कर्मका नाश होना तिसकी अपेक्षाकरि ध्यानका उपचार कीजिये है; तैसें परीषहकाभी उपचार जानना । अथवा इस सूत्रका अर्थ ऐसाभी कीया है, "एकादशजिने न सन्ति " ऐसा वाक्यशेष कहिये सूत्रमें चाहिये ते अक्षर लगावने । जातें सूत्र हैं ते सोपस्कार कहिये अन्य उपकार करने वाले अक्षरनिकी अपेक्षा करे हैं । तातें सूत्रमें वाक्यशेष कल्पना योग्य है । बहुरि वाक्य है सो वक्ता के आधीन है, ऐसा मानिये है । तातें इहां निषेधकूं न संति ऐसा वाक्यशेष लेना । जातें हां मोहके उदयका सहायके अभावतें क्षुधाआदिकी वेदनाका अभाव है, तातें ए परीषहभी नाहीं हैं ऐसा भी अर्थ जानना ॥
ए ग्यारह परीषहके नाम हैं । क्षुधा, तृष्णा, शीत, उष्ण, दंश, मशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श, मल ऐसें ग्यारह हैं। इहां दृष्टांत ऐसा भी जानना, जैसैं विषद्रव्य है सो मंत्र औषधि के चलतें ताकी शक्ति मारनेकी क्षीण होय जाय तब ताकूं कोई खाय तौ मरे नाहीं, तैसें
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