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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७४१ ॥
आपकूं बाधाका कारण ऐसें विष कंटक शत्रु शस्त्र होय, सो अमनोज्ञ है । तिसके संयोग होतें मेरे यह कैसे वियोग होय ? ऐसा संकल्प होय, सोही चिंताका प्रबंध ताकूं स्मृतिसमन्वाहार कहिये । यह पहला आर्तध्यान कहिये || आर्गे दूसरे भेदका लक्षणसूत्र कहैं हैं॥ विपरीतं मनोज्ञस्य ॥ ३१ ॥
याका अर्थ- मनोज्ञवस्तुके वियोग होतें तिसके संयोगके अर्थि वारवार चितवन रहे, सों दूसरा भेद आर्तध्यानका है । तहां पहले भेदमें कह्या तिसतें विपरीत कहिये । तातें ऐसा अर्थ भया, जो, मनोज्ञ प्यारा जो अपना पुत्र स्त्री धन आदि वस्तु तिनका वियोग होतें तिनके संयोग होनेके अर्थि संकल्प रहै वारवार चिंताका प्रबंध होय, सो दूसरा आर्तध्यानका भेद है ॥ आगें तीसरा भेद आर्तध्यानका लक्षणका सूत्र कहै हैं
॥ वेदनायाश्च ॥ ३२ ॥
याका अर्थ - वेदना कहिये रोगकी पीडा ताका वाखार चितवन रहै, सो तीसरा आर्तध्यानका भेद है। तहां वेदनाशब्दका अर्थ सुखदुःख दोऊही है । तथापि यहां आर्तध्यानका प्रक-रण है । तातें दुःखकाही अर्थ लेना । ऐसें वातआदि रोगविकारकरि उपजी वेदना ताका मेरे
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