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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७५० ।। संबंध करि लेणा । तातें ऐसा कहना, जाकै तीनूं योग प्रवर्ते, ताकै तौ पृथक्त्ववितर्क होय है। जाकै तीनूं योगमें एक योग प्रवर्ते, ताकै एकत्ववितर्क होय है । जाकै काययोगही प्रवते, ताकै सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति होय है। जाकै योग नाहीं प्रवते, ताकै व्युपरतक्रियानिवर्ति होय है । ऐसें जानना ॥ आगे आद्यके दोय शुक्लध्यानके विशेष जाननेकू सूत्र कहै हैं--
॥एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे ॥४१॥ याका अर्थ-- पृथक्त्ववितर्क एकत्ववितर्क ए दोऊ ध्यान एकाश्रय कहिये श्रुतकेवलीके आश्रय होय हैं । सो वितर्क अर वीचारसहित होय है। तहां एक है आश्रय जिनकै ते एकाश्रय । कहिये । ते दोऊही रुतज्ञान पूर्ण जिनकै होय ते आरंभै हैं । बहुरि वितर्क अरु वीचार इन दोऊसहित होय ते सवितर्कवीचार हैं । ऐसें पूर्व कहिये पहले पृथक्त्ववितर्क एकत्ववितर्क ए दोऊ हैं ॥ आगें इस सूत्रमें वितर्कवीचारका यथासंख्य प्रसंग आवै ताका निषेधके अर्थि सूत्र कहै हैं
॥ अवीचारं द्वितीयम् ॥४२॥ __याका अर्थ-द्वितीय कहता दूसरा जो एकत्ववितर्क सो अवीचार है, यामें विचार नाहीं । । पहले दोय शुक्लध्यान तिनमें दूसरा है सो वीचाररहित है । इहां ऐसा अर्थ भया, जो, आदिका तो |
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