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॥ सर्वार्थसिद्धिवचानिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७४७ ॥
| है। कर्मका फल सो विपाक । लोकका आकार सो संस्थान । तहां आज्ञासामान्य चिंतवै तब एकरूप चिंतानिरोध होय अरु न्यारा न्यारा पदार्थकू आज्ञाप्रमाणकरि चिंतवै तब न्यारा जानना ॥ ऐसेंही संस्थानविर्षेभी सामान्यविशेष चितवन जानना । अर अपायविपाकमें न्यारान्याराही चिंतवनविर्षे चिंतानिरोध होय है । बहुरि अविरतसम्यग्हाष्ट आदि तिनकै तौ गौणवृत्तिकरि ध्यान है । अरु अप्रमत्तकै यह ध्यान मुख्य है। बहुरि अनुप्रेक्षा तो चिंतवनरूपही है । अरु जब एकाग्रचिंतानिरोध होय तब ध्यान कहिये है । ऐसें अनुप्रेक्षातें ध्यान जुदा जानना । बहुरि इहां कोई पूछे है, जो, मिथ्यादृष्टि अन्यमती तथा भद्रपरिणामी व्रतशीलसंयमादि तथा जीवनिकी दयाका
अभिप्रायकरि तथा भगवानकी सामान्यभक्तिकरि धर्मबुद्धितें चित्तकू एकाग्ररि चितवन करै है, | तिनकै शुभ धर्मध्यान कहिये कि नाही? ताका समाधान, जो, इहां मोक्षमार्गका प्रकरण है। तातें जिस ध्यानतें कर्मकी निर्जरा होय सोही इहां गणिये है। सो सम्यग्दृष्टिविना कर्मकी निर्जरा होय नाहीं। मिथ्यादृष्टीक शुभध्यान शुभबंधहीका कारण है । अनादित केईवार ऐसा ध्यान
करि शुभ बांधै है, परंतु निर्जराविना मोक्षमार्ग नाहीं । तातें मिथ्यादृष्टिका ध्यान मोक्षमार्गमें है सराह्या नाहीं, ऐसा जानना ॥
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