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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७४३ ॥
गुणस्थानतें लगाय अविरतसम्यग्दृष्टिपर्यंत जानना । देशविस्त संयमासंयमवाले श्रावक हैं । प्रमत्तसंयत पंदरहप्रमादसहित मुनिपणाकी आहारविहारआदि क्रिया तथा आचार्यपदकी क्रियाके आच. रनेवाले हैं। तहां अविरत देशविरतकै तौ च्यारिही प्रकारका आर्तध्यान होय है । जातें ए असंयमपरिणामकरि सहित हैं। बहुरि प्रमत्तसंयमीनिकै विदानरहित तीनिही आर्तध्यान होय हैं । सो जिसकाल प्रमादका तीव्र उदय आय जाय तिसकाल होय है, सदाही न होय है ।
याका विशेष ऐसा, जो, आर्तध्यान तीव्र होय है, तब कृष्ण नील कापोत लेश्याके बलते होय है । अज्ञानतें उपजै है । पुरुषके परिणाम यामें लीन होय है । पापका प्रयोगके आश्रवतें होय है । बाह्यविषयके प्रसंगतें होय है । अनेकसंकल्प जामें पाईए । धर्मके आश्रव छुडावनहारी जे कषाय तिनके आश्रयतें होय है । कषाय तीव्र वधावनहारा है । प्रमाद याका मूल है । पापकर्मका यातै ग्रहण होय है । जाका फल कडवा है । तिर्यंचगतिका कारण होय है। सो ऐसा तो | मिथ्यादृष्टीकै होय है । बहुरि सम्यग्दृष्टि देशव्रती संयमीके उत्तरोत्तर मंद है ॥
आगे आर्तध्यान तो संज्ञादिकरि कहा, अब दूसरा ध्यानकी संज्ञा हेतु स्वा के निर्धारके अर्थि सूत्र कहै हैं
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