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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७४३ ॥ गुणस्थानतें लगाय अविरतसम्यग्दृष्टिपर्यंत जानना । देशविस्त संयमासंयमवाले श्रावक हैं । प्रमत्तसंयत पंदरहप्रमादसहित मुनिपणाकी आहारविहारआदि क्रिया तथा आचार्यपदकी क्रियाके आच. रनेवाले हैं। तहां अविरत देशविरतकै तौ च्यारिही प्रकारका आर्तध्यान होय है । जातें ए असंयमपरिणामकरि सहित हैं। बहुरि प्रमत्तसंयमीनिकै विदानरहित तीनिही आर्तध्यान होय हैं । सो जिसकाल प्रमादका तीव्र उदय आय जाय तिसकाल होय है, सदाही न होय है । याका विशेष ऐसा, जो, आर्तध्यान तीव्र होय है, तब कृष्ण नील कापोत लेश्याके बलते होय है । अज्ञानतें उपजै है । पुरुषके परिणाम यामें लीन होय है । पापका प्रयोगके आश्रवतें होय है । बाह्यविषयके प्रसंगतें होय है । अनेकसंकल्प जामें पाईए । धर्मके आश्रव छुडावनहारी जे कषाय तिनके आश्रयतें होय है । कषाय तीव्र वधावनहारा है । प्रमाद याका मूल है । पापकर्मका यातै ग्रहण होय है । जाका फल कडवा है । तिर्यंचगतिका कारण होय है। सो ऐसा तो | मिथ्यादृष्टीकै होय है । बहुरि सम्यग्दृष्टि देशव्रती संयमीके उत्तरोत्तर मंद है ॥ आगे आर्तध्यान तो संज्ञादिकरि कहा, अब दूसरा ध्यानकी संज्ञा हेतु स्वा के निर्धारके अर्थि सूत्र कहै हैं aakatpatrikaxxxantertairs For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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