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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७४४ ॥
॥हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः ॥३५॥ ___ याका अर्थ-- हिंसा अनृत स्तेय विषयकी रक्षा इनतें रौद्रध्यान होय है । तातें याके च्यारि भेद हैं । सो अविरत अर देशविरत इन दाऊनिकै होय है । हिंसा आदिका स्वरूप तो पहले कह्याही था। ते रौद्रध्यानकी उत्पत्तिकू कारण होय हैं । याहीतें सूत्रमें पंचमीविभक्तिरूप हेतुका निर्देश किया है । इहां स्मृतिसमन्वाहार जो चिंताप्रबंध ताका संबंध करना । हिंसाका स्मृतिसमन्वाहार इत्यादि । सो यहू रौद्रध्यान अविरत देशविरतकै दोकानके होय है । इहां प्रश्न, जो, अविरतकै तौ रौद्रध्यान होनेयोग्य है, देशविरत कैसैं कह्या? ताका उत्तर, जो, देशविरतकै हिंसादिका
आवेश पाईए है, विरतआदिकी रक्षाके आधीन है । तातें कदाकाल होय है, सो यातें नरकादिक | दुर्गतिका कारण नाहीं है । जाते याकै सम्यग्दर्शनकी सामर्थ्य है । तातें ताका फल मंद है। बहुरि सकलसंयमीकै यह होयही नाही है। जो यह तौ संयमीतें च्युत होय जाय । यह रौद्रध्यान तीव्र होय है, तब अतिकृष्ण नील कपोतके बलतें होय है । प्रमाद याका आश्रय है । नरक
गतिका कारण है । इन दोऊ अप्रशस्त ध्याननितें आत्मा ताता लोहका पिंड जैसें जल बँचे | तैसें कर्मनिकू बँचे है।
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