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॥ सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७३९ ॥ बहुरि जो चिंताका निरोध दिवसमासादि पर्यंत ठहरना कहिये तो बणे नाहीं । जातें बहुतकाल रहे इन्द्रियनिकै पीडा उपजै है । बहुरि जो श्वासोच्वासके रोकनेकू ध्यान कहिये तो साशरूपके तौ शरीरका नाश होय मृत्यु होय जाय है । बहुरि जो अन्यवादी कहै , मंदमंद श्वासोच्वासका प्रचार करि रोके तो शरीरका पात न होय है, यामें पीडाभी नाहीं होय है ।। ताकू कहिये, जो, ऐसा नाहीं है । मंद श्वासोश्वास रोकनेका साधन करना तो ध्यानका साधन करना है । जैसैं आसनआदि साधिये है, तैसें यहभी है । ध्यान तो एकाग्रचिंतानिरोध होय सोही है । बहुरि जय आदिविर्षे चित्तकी प्रवृत्ति रहै है सोभी ध्यान नाहीं है । बहुरि ध्यानके साधनके उपाय गुप्त्यादिक पहलै कहेही, ते संवरके कारणभी हैं । अर ध्यानकेभी उपाय हैं। __ आगें ध्यानके भेद दिखावनेकू सूत्र कहै हैं
॥आर्तरौद्रधर्म्यशुक्लानि ॥२८॥ याका अर्थ- आत रौद्र धर्म्य शुक्ल ए च्यारि ध्यानके भेद हैं। तहां ऋतुनाम दुःखका है, | अथवा अर्दन कहिये अति पीडा बाधा तिसविर्षे उपजै सो आर्त कहिये । रुद्र नाम क्रूर आशयका | है, ताका कर्म तथा ताविर्षे उपजै सो रौद्र कहिये । धर्म पहलां कह्या, सो तातें सहित होय सो
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