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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७३७ ॥ विनाश है। अर अंतर्मुहूर्त स्थिरता सो ध्यानका आत्मलाभरूप उत्पत्ति है। ऐसें अविच्छेदरूप होनेते सदा अवस्थितरूप ध्यानका प्रसंग नाही आवै है । ताते नित्य कूटस्थ ठहरै । तब वह कहें है, अन्यकालविर्षे अन्यकी उत्पत्ति भई सोही अंतर्मुहूर्त ठहरनेवालाका नाश कैसे मानिये? तहां | कहिये, जो, क्षणकाभी तो अन्यअन्यकाल है । तामें एकक्षणमें नाश अन्यक्षण स्थितिपणाकरि | उत्पत्ति कैसे माने है ? यामें तो हमारा अर तेरा कहना समान है । ऐसें होतें क्षणिकवस्तुकै उत्पत्ति विनाश दोऊही सिद्ध नाहीं होय हैं । कूटस्थ नित्यकीही सिद्धि होय है ॥
बहुरि जो क्षणिकवादीनिका ऐसा अभिप्राय है, जो, एकक्षणपीछे नाश होय है सो दूसरेक्षण तिष्ठनेरूप उपजै है ऐसे सदा रही उत्पत्ति, सदाही विनाश नाहीं ठहरे है । जाते क्षणिककी सिद्धि न होय । सो ऐसें मानेगा तो अंतर्मुहूर्तस्थितिरूपभी ठहरेगा। सो अंतर्मुहूर्त ठहरिकरि नाश
भया पछि अन्य अंतर्मुहूर्त ठहरनेकू उत्पत्ति भई । ऐसें समान है । बहुरि वह कहै, जो, ऐसे है तो | संवर आदिपर्यंत ध्यानका काल क्यों न कहै । ताका उत्तर, जो, जैसा जहां संभवै तैसा तहां कहिये । मनकी वृत्तिस्वरूप जो चिंताका निरोध एकध्येयविर्षे अंतर्मुहूर्तशिवाय ठहरना संभवै । नाहीं । यह अनुभवगोचर है । मनकी वृत्तिके एकविषयतें अन्यविषयविर्षे उलटना देखिये है । ऐसें
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