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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७३८ ॥
हीनसंहननवालाके चिंताका निरोध अल्पकाल देखि अर उत्तमसंहननवालेके अंतर्मुहूर्तकी संभावना करिये है । आगमप्रमाणकारभी यह सिद्ध है । बहुरि अंतर्मुहूर्तका स्वरूप आगमतें जानना।।
बहुरि इहां कोई कहै, जो, ज्ञान है सोही ध्यान है। ताकू कहिये, जो, ऐसें नाहीं है। | ज्ञान है सो तो चलाचलरूप है। ध्यान है सो ज्ञानका निश्चलपणा है । यातें ज्ञानतें याका लक्षण
जुदा है । याहीतें ध्यानकू अधिकाररूपकरि ताका स्वरूप कहनेकू अंतर्मुहुर्त कहनेतें बहुतकालरूप दिवसादिकका निषेध है । जातें ऐसी शक्तिका अभाव है। बहुरि सूत्रविर्षे एकशब्द है ताका अर्थ प्रधानपणाभी होय है। तिस अर्थकी अपेक्षा इहां एक कहिये प्रधान जो ध्यान करनेवाला पुरुष ताहीविर्षे चिंताका निरोध करै । बहुरि अग्रशब्दकाभी अर्थ पुरुष होय है । ताकी अपेक्षाभी पुरुषविर्षे चिंताका निरोध कहिये अन्यध्येयकू छोडि आपविही ध्यानकी प्रवृत्ति होय है । ऐसें अनेकअर्थका वाची जो एकाग्रशब्द सो सूत्रमें युक्त स्थाप्या है । इहां एकार्थवचनही नाहीं ग्रहण करना । जो एकार्थ ऐसा वचन ग्रहण करिये तो " वीचारोऽर्थव्यंजनयोगसंक्रान्तिः” इस सूत्रमें द्रव्यपर्यायविर्षे पलटनेका अर्थ है । ताका निषेध आवै । तातें एकाग्रशब्दतै पलटनेका अर्थ विरोध्या न जाय है । ऐसें जानना ॥
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