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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७१५ ।।
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सिद्धिके अर्थि प्रायश्चित्तका उपदेश है। तहां प्रायश्चित्तका शब्दार्थ ऐसा, प्रायः कहिये साधुलोकका समूह तिनका चित्त जिस कार्यमें प्रवर्ते, सो प्रायश्चित्त कहिये । अथवा प्राय नाम अपरा| धका है, ताका चित्त कहिये शुद्ध करना, सोभी प्रायश्चित्त कहिये । तहां दशदोषवर्जित गुरुका
अपना लग्या दोष कहना, सो आलोचन कह्या । सो गुरु एकान्तविर्षे तौ बैठे होय, प्रसन्नचित्त है | होय, बहुरि देशकाल जाननेवाला शिष्य होय सो विनयकरि अपना प्रमाददोषर्फे कहै । ताके दश दोष टालै ते कौन सो कहिये है। शिष्य ऐसा विचारै, जो, गुरुनिकू किछू उपकरण दीजिये तो प्रायश्चित थोरा दे, ऐसें विचारि किछु नजरि करना, सो प्रथम दोष है ॥ में दुर्बल || | हौं, अशक्त हों, रोगी हों, उपवासादि करनेको समर्थ नाही, जो, थोरासा प्रायश्चित्त दे तौ | दोषका निवेदन करूं ऐसें थोरा प्रायश्चित्त लेनेके अभिप्राय कहना, सो दूसरा दोष है ।। अन्य
जो न देखे तिनकू छिपाय अर अन्यके देखै प्रगट भये ते दोष कहने ऐसा मायाचार करना सो है | तीसरा दोष है ॥ आलस्यतें, प्रमादतें, अल्पअपराधकू तो गिणे नाही, ताके जाणनेका उत्साह
नाहीं अर स्थूलदोषहीकू कहना, सो चौथा दोष है । मोटे प्रायश्चित्त देनेके भयकर बड़ा दोष तो छिपावना अर तिसके अनुकूलही अल्पदोष कहना, सो पांचमा दोष है ॥ ऐसें व्रतके अतीचार
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