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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७१९ ।
आलोचनाही है। आवश्यकआदिकी क्रियाका देशकालका नियम कीया था, करने आदिके निमित्तकरि विस्मरण होय जाय, ताका फेरि करनेविर्षे प्रतिक्रमण का है। बहुरि इन्द्रियवचनका दुःपरिणाम होय जाय, आचार्य आदिके पग लागि मितिगुप्तिविर्षे स्वल्प अतिचार लागै, परका बिगाड होनेका वचन निकलै, कल वैयावृत्य स्वाध्यायादिविर्षे प्रमाद करै इत्यादिविर्षेभी प्रतिक्रमण है। बहुरि अकाल . गमन करे, लोंचन स्वछंद करै, स्वमविर्षे रात्रिभोजनादिका अतिचार लागै, उदरमेंसूं: मांछर पवनादिकके निमित्ततें रोमांच होय, हरिततृणादिकी भूमि तथा पंकपरि गमन्? ताई जलमें प्रवेश करै, नावतें नदी तिरै, अन्यका उपकरण आदि अपणावै, पुस्तन कका अविनय होय जाय, पंचस्थावरका घात होय जाय, अदृष्टदेशवि मलमूत्र क्षे क्रिया व्याख्यानके अंत इत्यादिविर्षे आलोचन प्रतिक्रमण दोऊ हैं। बहुरि भयकरि तपऊ तथा विना जाणे तथा कोई कार्यकी अशक्तताकरि शीघ्रताकरि महाव्रतमें अतिचार लागें, तपपर्यंत छहूप्रकार प्रायश्चित्त है। बहुरि त्यागनेयोग्यफू छिपायकरि छोडै, बहुरि कोई का अप्रासुकका ग्रहण होय जाय, तथा प्रासुककाभी त्याग कीया था तथा भूलिकरि ग्रहण
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