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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७३२॥
तथा एकशब्दकू प्रधानवाची लीजिये। तब एकाग्रवि चिंतानिरोध कहिये । ऐसें अनेक अर्थ | जे गौणभूत तिनविर्षे चिंतानिरोधका निषेध भया । तातें कल्पनारोपित ध्यानका निषेध भया ।
इहां तर्क, जो, अनेकवादीनिके सर्वपदार्थ एकानेकरूप मानिये है तातें अनेकरूपका निषेध कैसे होय? एक अर्थविर्षे ध्यान कैसे होय ? ताका समाधान, यह विनाविचाऱ्या तर्क है । एकअर्थकी एकपर्यायके प्रधानपणाकरि ध्यानका विषयपणा कहिये है । तहां द्रव्यकै अन्यपर्याय होतेभी गौणपणातें ध्यान के विषय नाहीं हैं, याहीते एकशब्द संख्यावाचीका यहां ग्रहण है । फेरि तर्क, जो, ऐसें तौ कल्पनारोपितविषयविर्षे ध्यान भया । जातें पर्यायमात्र तो वस्तु नाही, द्रव्यमात्रभी नाही है । द्रव्यपर्यायस्वरूप जात्यंतर वस्तु माना है । नयका विषय वस्तुका एकदेश है । जो नयका विषय सर्वदेश वस्तु मानिये तो याकै विकलादेशपणाका विरोध आवै । ताका समाधान, जो, ऐसैं कहनेवालाभी न्यायका वेत्ता नाहीं। जो, सर्वथा द्रव्यपर्यायस्वरूपका निषेधरूप पर्यायमात्र मानिये तो अवस्तु होय । अर जहां द्रव्यपर्यायकी परस्पर सापेक्षा होय तहां तौ अवस्तुपणा है नाहीं । तातें नयका एकदेशविषय है तौऊ ताकू अवस्तु न कहिये ।।
बहुरि कोई कहै, स्वरूपका आलंबन सोही ध्यान है । सो यहभी युक्त नाहीं । तातें सर्वथा
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