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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७३१ ॥ विर्षे चिंतानिरोध नाहीं। तातें एकाग्रवि चिंतानिरोधकू ध्यान कह्या है । इहां एकशद है सो तौ संख्यावाचक है । बहुरि अंग्यते तत् अथवा अंगति तस्मिन् ऐसा विग्रहते अग्रशब्द निपज्या है । तातें याका अर्थ मुख है, भद्र इंद्र अग्र विप्र ए शब्द निपातसिद्ध हैं। अंगि ऐसी धातु है, सो गतिअर्थमें है। ताका कर्मविर्षे तथा अधिकरण विर्षे र ऐसा प्रत्ययका विधान है । बहुरि चिंता मनकी वृत्तिकू कहिये है । बहुरि अनियम जाकै क्रिया होय ताका नियमतें क्रियाका कर्तापणाविर्षे अवस्थान होय सो निरोध कहिये । इहां समास करै हैं, एक अग्र कहिये मुख जाकै होय सो तो एकाग्र कहिये । बहुरि चिंताका निरोध सो चिंतानिरोध कहिये । बहुरि एकाग्र | सोही चिंतानिरोध सो एकाग्रचिंतानिरोध कहिये । ऐसा एकाग्रचिंतानिरोध है सो ए काहेरौं | होय है ? आत्माकी सामर्थ्य के विशेषतें होय है । जैसे दीपगकी शिखा निर्वातदेशविर्षे अंतरंग बहिरंग हेतुके वशतें निश्चल तिष्ठे है तैसें चिंताह वीर्यांतरायकर्मके क्षयोपशमका विशेषते तथा निराकुलप्रदेशविर्षे निश्चल तिष्ठे है । यातें अन्यचिंतानिरोधः नानामुखपणाकी निवृत्ति कही। अथवा अग्रशब्द है सो अर्थपर्यायवाची है। जाते याकू कर्णसाधन करिये , तब अर्थपर्यायवाची होय है । एकपणा सोही अग्र सो एकाग्र कहिये । ऐसें एकत्वकी संख्याविशिष्ट अर्थ भया । |
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