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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७२९ ॥
___ बहुरि कोई कहै, जो, ज्ञान ज्ञेयस्वरूपही होय जाय है, सो यह वणे नाहीं । जाते विषयरूप ज्ञेय तो जडभी है । सो जडरूप तो ज्ञान होय नाही । ज्ञानकी स्वच्छता ऐसेंही है, जो, ज्ञेयवस्तु तो जैसा है तैसा जहांका तहां तिष्ठै है। आप तिसकू जाने है, तातें तिस आकार भया उपचार कहिये है। ज्ञान आत्माका गुण है सो आत्मा अमूर्तिक है । तातै ज्ञानही अमूर्तिक अर ताकी वृत्तिरूप अंश हैं तेभी अमूर्तिक हैं। तातें अमूर्तिकमें काहू मूर्तिकका प्रतिबिंब कैसे आय पडै ? जो जानकी वृत्तिकों मर्तिक मानिये तो इन्द्रियनिकरि ग्रहण करने योग्य ठहरै। बहरि मनकीज्यों अतिसूक्ष्मपणातें अप्रत्यक्ष कहिये सो स्वसंवेदनगोचरभी न ठहरै। अर स्वसंवेदस्वरूपभी न कहिये, तौ अन्यअर्थकुंभी नाही जानेंगा । बहुरि दीपककीज्यों परप्रकाशकही बतावै तौ दीपक तौ जड है, अन्यके नेत्रनिको ज्ञानका कारण सहकारीमात्र उपचारकरि कहिये है, परमार्थतें ज्ञानका कारण आत्माही है ॥
बहुरि मूर्तिककै तौ स्वसंवेदन कहूं देखा नाहीं। तथा कानें मान्याभी नाहीं। तातें ज्ञानकी वृत्ति जे पर्यायके अमूर्तिकही हैं । बहुरि कहै जो ज्ञानकी वृत्तिके विषयके जाननेका नियम | है, तातें जानिये है, जो, शेयनिके प्रतिबिंबनिकू ए धारी हैं। ताकू कहिये, जो, निराकारकैभी
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