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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७२८ ॥ हैं। तौ ताकू कहिये ऐसेंही पुरुषके पर्यायके ज्ञान के विशेषते अनित्य मानने में कहा दोष है ? | तब कहै जो पर्याय पुरुषते अभेदरूप है, तातें पुरुषकै अनित्यपणा आवै है। तहां कहिये, जो, प्रधानतें तिसका परिणाम कहा अत्यंतभिन्न है ? जाते प्रधानकै अनित्यता न आवै । तहां वह कहै, जो, परिणामही अनित्य है परिणामी तौ नित्यही है। ताकू कहिये, जो, ऐसें है तो ज्ञान अरु आत्माकै अभेद होतेभी ज्ञानही अनित्य है, पुरुष नित्य है, या ठहरी । फेरि वह कहे, पुरुष तो अपरिणामीही है। तौ ताकू कहिये, प्रधानभी अपरिणामी क्यों न कहे ? तब वाह कहै, व्यक्तितें प्रधान परिणामी कहिये, शक्तितें नाहीं। तहां ताकू कहिये, पुरुषभी ऐसेंही हैं, यामें विशेष कहा? जाते जो स्वत्वरूप है सो सर्वही परिणामी है। अपरिणामीकै तौ क्रमपणा अरु युगपत्पणा होय नाहीं। इनविना अर्थक्रिया होय नाहीं। तातें द्रष्टा है तैसेंही आत्मा ज्ञाता है । यामें बाधा नाही । तातें असंप्रज्ञातयोगरूप ध्यान कहै, सो बणें नाहीं । अज्ञानरूप पुरुषका खरूप अवस्थान संभवै नाहीं । यातें जडपणा आवै है । बहुरि संप्रज्ञातयोग है सो ज्ञान की वृत्ति ज्ञेयका होना तिसमात्र है, सो ज्ञानका स्वरूपही है। यामैं तो किछ विवाद नाहीं है। जातें ध्यान है सो ज्ञानहीका एकाग्र होना है।
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