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॥सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७२६ ॥ हूर्त ऐसा कालका परिमाण है, सो अंतर्गत कहिये मुहूर्तके माहीं होय, सो अंतर्मुहूर्त कहिये । आङ् ऐसा उपसर्ग जोडै मर्याद भई, जो, अंतर्मुहूर्तताई लेणा आगे नाहीं, ऐसे कालकी मर्यादा कही । जातें एते कालसिवाय चिंताका एकाग्रनिरोध होय सकै नाही दुर्द्धर है। इहां प्रश्न, जो, चिंताका | निरोध सो ध्यान है, तो निरोध तो अभावकू कहिये है, तातें ध्यान निर्विषय अभावरूप ठहया, सो गधेके सींगकीज्यौं भया। ताका समाधान, जो, यह दोष नाहीं। अन्यचिंताकी निवृत्तिकी अपेक्षा तौ अभावरूपही है । बहुरि चिंता जिसविषयकू अवलंब्या तिसकै आकार प्रवृत्तितें सद्भावरूप है। जाते अभाव है सो भावान्तरके स्वभावरूप है, तातै वस्तुका धर्म है, हेतुका अंग है। अभावतेंभी वस्तुही सधै है। अथवा निरोधशब्दकू भावसाधन न करिये अर कर्मसाधन करिये, तब जो निरोधरूप भई सोही चिंता ऐसें ज्ञानही चलाचलपणातूं रहित होय एकाग्र भया सोही ध्यान है। जैसे अमिकी शिखा निराबाधप्रदेशमें चलाचलपणाते रहित होयकरि स्थिर है दीप्यमान होय, तैसें जानना ॥
इहां विशेष श्लोकवार्तिकतें लिखिये है। इस सूत्रविर्षे ध्याता ध्यान ध्येय ध्यानका काल | ए च्यारि कहा है। अर सामर्थ्यते याकी प्रवृत्तिकी सामग्री जानिये है। इहां कोई अन्यमती
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