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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७२७ ॥
कहै है, जो, हमारे मतमें चित्तकी वृत्तिके निरोधकू योग कह्या है। ताकू पूछिये, जो, साहीही चित्तकी वृत्तिका निरोध जाका किछू विषय नाहीं ऐसा कह्या है, कि, ज्ञानका स्थिर होना कह्या है? जो, आद्यकी पक्ष कहेंगा, तो निर्विषय तुच्छ अभावरूप है, जो प्रमाणभूत नाहीं अर स्थिर ज्ञानस्वरूप कहेगा, तौ हमारी मिली। तहां वह कहै है, जो, हम तुच्छाभावरूप तो नाहीं कहै । पुरुषका स्वरूपकेविर्षे अवस्थानकू चित्तकी वृत्तिका निरोध कहै हैं। याहीकू समाधि कहिये है। असंप्रज्ञातयोग ध्यान ऐसा कहिये है तहां समाधिविर्षे ज्ञानकाभी उच्छेद होय जाय है। ताते हमारे ऐसा कह्या है, जो, समाधिकालविर्षे द्रष्टा कहिये पुरुष ताका स्वरूपकेविर्षे अवस्थान होय है। आत्मा तो द्रष्टा है अर ज्ञाता प्रधान है। पुरुषका स्वरूपकेविर्षे अवस्थान है, सो परम | उदासीनपणा है। ताकू कहिये, जो, पुरुषकू द्रष्टा कहै हैं, जो ज्ञाताभी पुरुषही है। देखना जानना तो दोऊ अविनाभावी है। जो प्रधानकू ज्ञाता कहेगा तो द्रष्टाभी प्रधानही ठहरेगा, तब पुरुष जड़ ठहरेगा।
इहां कहै, जो, ज्ञाता पुरुषकू कहै ज्ञान अनित्य है। तातें पुरुषकै अनित्यता आवैगी। तो ऐसें तो प्रधानभी अनित्य ठहरेगा। तब वह कहै, प्रधानका परिणाम तौ अनित्य हम मानेही
మారనుందరందరకుండుతుంటుందని
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