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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। नवम अध्याय ॥ पान ७३०॥
विषयका नियमकी सिद्धि है । जैसे पुरुषके जाळू देसै ताका भोगका नियम है, तैसें । फेरि वह कहै, जो, बुद्धिके विषय अर्थका प्रतिबिंब है, ताहि पुरुष भोग है, तातें विषयपति नियम है । ताकू कहिये, जो, बुद्धि फेईक अर्थका प्रतिबिंबळू न धारै, अर समस्तअर्थका प्रतिबिंबकून धारै, सो इहां कारण कहा है ? तहां वह कहै, जो, अहंकार जिसविर्षे भया तिसहीका प्रतिबिंबडूं बुद्धि धारै | है । ता• कहिये, जो, ऐसे तो अहंकारके नियम ठहन्या । बुद्धि तौ प्रतिबिंबविनाही अर्थकू स्थापै | है यह ठहरी । अर मन का संकल्प अहंकार जान्या, अर इंद्रियनिका आलोच्या मन जान्या, ऐसैं
अपनी अपनी सामग्रीतही विषयप्रति नियम ठहस्सा । तातै प्रतिबिंबकी कल्पनाकरि कह्या । ऐसें होते चित्तकी वृत्तिका सारूप्य कहिये पदार्थके प्रतिबिंब धारनेरूप समानरूपता नाहीं है, तातें तिस| मात्र संप्रज्ञातयोग ठहरै । तातें अन्यमतीनिकै ध्यानका संभव नाहीं है ।
बहुरि तिनकै ध्येयवस्तुभी नाहीं ठहरे है । तिनके ध्यानके सूत्रमें ध्येयका ग्रहणही नाही | है । बहुरि ध्यानकी सिद्धि नाहीं, तब ध्येयकी सिद्धि काहेतें होय ? बहुरि स्यादादीनिकै ध्यान है सो विशिष्टध्येयवि कह्याही है। जातें चिंताका निरोधके एकदेशतें तथा सर्वदेशतें ध्यानकें एकाग्रविषयपणाकरि विशेषण कीया है, सोही ध्येय है। अनेकविर्षे अप्रधानविर्षे तथा कल्पितः |
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