SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 748
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। नवम अध्याय ॥ पान ७३०॥ विषयका नियमकी सिद्धि है । जैसे पुरुषके जाळू देसै ताका भोगका नियम है, तैसें । फेरि वह कहै, जो, बुद्धिके विषय अर्थका प्रतिबिंब है, ताहि पुरुष भोग है, तातें विषयपति नियम है । ताकू कहिये, जो, बुद्धि फेईक अर्थका प्रतिबिंबळू न धारै, अर समस्तअर्थका प्रतिबिंबकून धारै, सो इहां कारण कहा है ? तहां वह कहै, जो, अहंकार जिसविर्षे भया तिसहीका प्रतिबिंबडूं बुद्धि धारै | है । ता• कहिये, जो, ऐसे तो अहंकारके नियम ठहन्या । बुद्धि तौ प्रतिबिंबविनाही अर्थकू स्थापै | है यह ठहरी । अर मन का संकल्प अहंकार जान्या, अर इंद्रियनिका आलोच्या मन जान्या, ऐसैं अपनी अपनी सामग्रीतही विषयप्रति नियम ठहस्सा । तातै प्रतिबिंबकी कल्पनाकरि कह्या । ऐसें होते चित्तकी वृत्तिका सारूप्य कहिये पदार्थके प्रतिबिंब धारनेरूप समानरूपता नाहीं है, तातें तिस| मात्र संप्रज्ञातयोग ठहरै । तातें अन्यमतीनिकै ध्यानका संभव नाहीं है । बहुरि तिनकै ध्येयवस्तुभी नाहीं ठहरे है । तिनके ध्यानके सूत्रमें ध्येयका ग्रहणही नाही | है । बहुरि ध्यानकी सिद्धि नाहीं, तब ध्येयकी सिद्धि काहेतें होय ? बहुरि स्यादादीनिकै ध्यान है सो विशिष्टध्येयवि कह्याही है। जातें चिंताका निरोधके एकदेशतें तथा सर्वदेशतें ध्यानकें एकाग्रविषयपणाकरि विशेषण कीया है, सोही ध्येय है। अनेकविर्षे अप्रधानविर्षे तथा कल्पितः | For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy