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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७२४ ॥ नाश होय, मार्गकी दृढता होय, परवादीकी आशंकाका अभाव होय, ए फल हैं । आगें व्युत्सर्गतपके भेदके निर्णयके अर्थि सूत्र कहै हैं
॥ बाह्याभ्यन्तरोपध्योः ॥२६॥ याका अर्थ-बाह्य अभ्यंतर ऐसें दोयप्रकारका परिग्रहका त्याग ए व्युत्सर्गके दो तहां व्युत्सर्ग नाम त्यागका है, सो दोयप्रकार है, बाह्य उपाधिका त्याग, अभ्यंतर उपाधि तहां अनुपात्तवस्तु जो आपते न्यारा धनधान्यादिक, सो तो बाह्यपरिग्रह है । बहुरि कर्म भये आत्माके भाव जे क्रोधआदिक, ते अभ्यंतर परिग्रह हैं । बहुरि कायकाभी त्याग य गिणना । सो कालका नियमकरिभी होय है, अर यावजीवभी होय है। ऐसें बाह्य अभ्यंत तिनका त्याग, सो व्युत्सर्ग है। याके प्रयोजन निःसंगपणा निर्भयपणा जीवितकी आश ए व्युत्सर्गके फल हैं । इहां ऐसा जानना, जो, व्युत्सर्ग महाव्रतमेंभी कह्या, दशध' प्रायश्चित्तमेंभी कह्या, इहां तपका भेदभी कह्या । सो यामें विरोध नाहीं है । जा कोईविर्षे त्यागकी शक्ति होय ऐसें शक्तिकी अपेक्षा अनेकप्रकारकरि कह्या है। उन बढनेकाभी प्रयोजन है। इहां एता विशेष और जानना, जो, महाव्रतमें परिग्रह
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