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॥ सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७२३ ॥ पंडितपणाकरि कला वक्तापणा आदि गुण होय, सो लोकविर्षे मान्य होय सो मन | ऐसा अविरतसम्यग्दृष्टि होय, जामें मार्ग• ऊचौ दिखावनेके गुण होय, ताकुंभी म है ॥ आगें स्वाध्यायके भेद जाननेकू सूत्र कहै हैं
॥ वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः ॥ २५॥ ___ याका अर्थ- वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय, धर्मोपदेश ए पांच स्त्र भेद हैं । तहां निर्दोष ग्रंथ अर्थ उभय उनका जो भव्यजीवनिकू देना शिखावना सो तौ बहुरि संशयके दूरि करनेकू निर्बाध निश्चयके समर्थनिळू दृढ करनेकू परकू ग्रंथका अर्थ दं | करना, सो पृच्छना है । जो आपकी उच्चताकरि प्रार्थि परके ठगनेके अर्थि नीचा पाड परकी हास्य करनेकू इत्यादि खोटे आशयसूं पूछै सो पृच्छना तप नाही है । बहुरि जिस स्वरूप जान्या, ताका मनकेविर्षे वारवार चिंतन करना, सो अनुप्रेक्षा है । बहुरि पार घोखना, सो आम्नाय है । बुहिरि धर्मकथा आदिका अंगीकार, सो धर्मोपदेश है। ऐसे
कारका स्वाध्याय है । याका फल प्रज्ञाका तौ अतिशय होय, प्रशस्त आशय होय, प | होय, तपकी वृद्धि होय, अतीचारका शोधन होय इत्यादिक याके प्रयोजन हैं । तथा सश
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