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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७२० ॥ सो यादि आई ताका फेरि त्याग करणा, प्रायश्चित्त है ।
बहुरि खोटा सुपना आवै, खोटा चिंतवन करे, मलमूत्रका अतीचारविर्षे बडी न बनीके प्रवेश तरणेविय कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त है । बहुरि बहुतवार प्रमादतें बहुत प्रत्यक्ष होर प्रतिकूल प्रवर्ते, विरुद्ध श्रद्धा करै, तिनकू अनुक्रमतें छेद मूलभूमि अनुपस्थापन 'रि प्रायश्चित्त हैं। तहां अपने संघके आचार्यके निकटही सर्वते नांचा पाडि प्रायश्चित्रैई अनुपस्थापन है। बहुरि अन्य आचार्यके निकटि तीनिवार फेरै सो पारंचिक है। ऐ प्रायश्चित्त देश काल शक्ति संयमादिके अविरोधकरि जैसा अपराध होय तैसा प्रायधि मिटावै । जैसैं यथा रोग देशकालादि देखि वैद्य रोग मिटावै तैसें करै । या जीव स्थानक असंख्यातलोकपरिमाण है। तेतेही अपराध लागें हैं। सो प्रायश्चित्तके भेद व्यवहारनयकरि सामान्यकरि प्रायश्चित्तके भेद यथासंभव होय हैं। आगे विनयके भेद कहनेकू सूत्र कहै हैं
॥ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः ॥ २३ ॥ याका अर्थ- ज्ञानका विनय, दर्शनका विनय, चारित्रका विनय, उ
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