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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७१८ ॥
पूर्वक प्रतिक्रमण है, तौ तदुभयका कहना व्यर्थ है। ताका समाधान, जो, यह दोष इह है । जातें सर्वही प्रतिक्रमण आलोचनपूर्वकही है। परंतु यामें विशेष है, सो कहा? 5 गुरुनिकी आज्ञातें शिष्य जानि रहे हैं, जो, प्रतिक्रमणमात्रतें फलाणा दोष निर्वर्वन होर ऐसा दोषका प्रतिक्रमण तो शिष्यही करि ले है । सो तौ आलोचनपूर्वक भयाही । बहुरि जा दोषका प्रतिक्रमणकी गुरुनिकी आज्ञा नाहीं, सो आलोचनपूर्वकही शिष्य करैर्ह गुरु करै सो आपही करि ले है । बहुरि तिनकै आलोचना नाहीं है ।।
विवेकका विशेष जो, जा वस्तुविर्षे सदोषका संदेह पड्या होय, तहां सदोष षका ज्ञान भया होय. तथा जाका त्याग कीया होय, जाका ग्रहण हो जाय, तिसर करना, सो विवेक है। कायोत्सर्ग करै है सो कालका नियमकरि करै । अर तप कहे तेही जानने। इन प्रायश्चित्तानकू कहां कहां लेने ताका संक्षेप कहिये है। आतापनादियोग करना, अन्यका उपकरण ग्रहण करणा इत्यादिक विनयसहित तौ याका आलोचनमात्र प्रायश्चित्त है। बहुरि परोक्ष प्रमादसेवना, आचार्यका व आचार्यके प्रयोजननिमित्त विनापूछ्या जाना, परसंघमेंसू विना पूछया आवन
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