SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 733
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७१५ ।। Massaduasatertaitaaraaberdasatta सिद्धिके अर्थि प्रायश्चित्तका उपदेश है। तहां प्रायश्चित्तका शब्दार्थ ऐसा, प्रायः कहिये साधुलोकका समूह तिनका चित्त जिस कार्यमें प्रवर्ते, सो प्रायश्चित्त कहिये । अथवा प्राय नाम अपरा| धका है, ताका चित्त कहिये शुद्ध करना, सोभी प्रायश्चित्त कहिये । तहां दशदोषवर्जित गुरुका अपना लग्या दोष कहना, सो आलोचन कह्या । सो गुरु एकान्तविर्षे तौ बैठे होय, प्रसन्नचित्त है | होय, बहुरि देशकाल जाननेवाला शिष्य होय सो विनयकरि अपना प्रमाददोषर्फे कहै । ताके दश दोष टालै ते कौन सो कहिये है। शिष्य ऐसा विचारै, जो, गुरुनिकू किछू उपकरण दीजिये तो प्रायश्चित थोरा दे, ऐसें विचारि किछु नजरि करना, सो प्रथम दोष है ॥ में दुर्बल || | हौं, अशक्त हों, रोगी हों, उपवासादि करनेको समर्थ नाही, जो, थोरासा प्रायश्चित्त दे तौ | दोषका निवेदन करूं ऐसें थोरा प्रायश्चित्त लेनेके अभिप्राय कहना, सो दूसरा दोष है ।। अन्य जो न देखे तिनकू छिपाय अर अन्यके देखै प्रगट भये ते दोष कहने ऐसा मायाचार करना सो है | तीसरा दोष है ॥ आलस्यतें, प्रमादतें, अल्पअपराधकू तो गिणे नाही, ताके जाणनेका उत्साह नाहीं अर स्थूलदोषहीकू कहना, सो चौथा दोष है । मोटे प्रायश्चित्त देनेके भयकर बड़ा दोष तो छिपावना अर तिसके अनुकूलही अल्पदोष कहना, सो पांचमा दोष है ॥ ऐसें व्रतके अतीचार For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy