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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७१४ ॥ तिनका स्वरूपभेदके निर्णयके अर्थि सूत्र कहै हैं__॥ आलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापनाः ॥२२॥ याका अर्थ- आलोचन, प्रतिक्रमण, ते दोऊ, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार, उपस्थापना ए नव भेद प्रायश्चित्ततपके हैं। तहां गुरुनिकू अपना प्रमादकरि लागै दोषका कहना ताकै दश दोष टालने, सो आलोचन है। बहुरि मोकू दोप लागे हैं, ते मिथ्या होऊ निष्फल होऊ ऐसे प्रगट वचनकरि कहना, सो प्रतिक्रमण है । बहुरि आलोचनाप्रतिक्रमण दोऊ करना, सो तदुभय है । बहुरि दोषकरि सहित जे आहार पाणी उपकरण तिनका संसर्ग भया होय तौ तिनका त्याग करना, सो विवेक है । कायोत्सर्गआदि करना सो व्युत्सर्ग है । अनशन आदि तप करना, सो तप है । दिवस पक्ष मास आदिकी दीक्षाका घटावना, सो छेद है । पक्ष मास आदिका विभागकरि दृरिपर वर्जन करना, संघवारे राखणा, सो परिहार है । अगिली दीक्षा छेदि नवा सरधे दीक्षा देना, सो उपस्थापन है ।। याका विशेष लिखिये हैं। तहां प्रमादजनित दोषका तो सोधन, अर भावकी उज्वलता; अर शल्यका मिटना, अर अनवस्थाका अभाव, अरु मर्यादमें रहना, संयमकी दृढता इत्यादिकी || For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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