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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचानिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७१६ ॥ SAFARPAISAGAROSAGARPAISAFARPAIKARAOKGARKONKENPAoragaveen | होतें कह्या प्रायश्चित्त होय है, ऐसे अभिप्रायतें प्रायचित्त जानने कू गुरुनिकी उपासना टहल करना दोष न कहना, सो छठा दोष है ॥ पाक्षिक चातुर्मासिक सांवत्सरिक जो प्रतिक्रमण ताकू घणे मुनि भेले होय करै, तहां आलोचनाके शद बहुत होय तिनमें आपभी अपना दोष कहै अभिप्राय ऐसा होय जो कछू सुणेंगे कळू न सुणेंगे ऐसा विचारिकरि नचीत होना सो सातमां दोष है ॥ गुरुनिकरि दीये प्रायश्चित्तविर्षे संदेह उपजावे, जो, यह प्रायश्चित्त दीया सो आगममें है कि नाही? ऐसी शंकाकरि अन्यमुनिनिक पूछ सो आठमां दोष है । किछु प्रयोजन विचारी | अर आपसमान होय ताहीकू अपना प्रमाददोष कहकरि प्रायश्चित्त आपही ले ले, सो नवमां दोष है, यामें बडा प्रायश्चित्त ले तो फलकारी नांहीं ॥ अन्यमुनिनिकू अतीचार लाग्या होय तानें है किछु प्रायश्चित्त लीया होय ताकू देखि तहां विचारै, जो, याकेसमान मोकुंभी अतीचार लाग्या | सो याकू प्रायश्चित्त दिया सोही मोकू युक्त है ऐसें विचारि अपना दोष प्रगट न करना प्रायश्चित्त | ले लेना, सो दशमां दोष है | अपने अपराधकू घणे काल न राखणा तत्काल गुरुनिपै जाय | कपटभावतें रहित होय बालककीज्यों सहलपणातें दोषनिकू कहै ताकै ए दोष नाही लागै हैं ।। तहां मुनि तौ आलोचन करै, सो एक गुरु एक आप ऐसें दोयही होते एकान्तमें करै । excesserxoxhotezier berezikis For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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