Book Title: Sarvarthsiddhi Vachanika
Author(s): Jaychand Pandit
Publisher: Kallappa Bharmappa Nitve

View full book text
Previous | Next

Page 731
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir || सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७१३ ॥ कहिये दूसरा जो अभ्यंतर तप ताके भेद हैं । इनकै अभ्यंतरपणा कैसें है ? सो कहै हैं । ए तप अन्यमतिनिकरि नाहीं कीजिये हैं । तथा मनकूंही अवलंब्यकरि इनका प्रवर्तन है। तथा बाह्यद्रव्यकी अपेक्षा इनमें प्रधान नाहीं है, तातैं इनकै अभ्यंतरपणा है । तहां प्रमादके वशर्तें व्रतमें दोष उपजै ताके मेटनें करिये सो तौ प्रायश्चित्त है ॥ १ ॥ पूज्य पुरुषनिका आदर करना, सो विनय है || २ || कायकी चेष्टाकार तथा अन्यद्रव्यकरि जो उपासना टहल करना, सो वैयावृत्य है || ३ || ज्ञानभावनाविषै आलस्यका त्याग, सो स्वाध्याय है ॥ ४ ॥ परद्रव्य के विषै यह मै हूं यह मेरा है ऐसा संकल्पका त्याग, सो व्युत्सर्ग है ॥ ५ ॥ चित्तका विक्षेप चलाचलपनेका त्याग, सो ध्यान है ॥ ६ ॥ ऐसें छह अभ्यंतर तप हैं | आगे इन तपनिके भेद कहने कूं सूत्र कहै हैं॥ नवचतुर्दशपंचाद्विभेदा यथाक्रमं प्राग्ध्यानात् ॥ २१ ॥ याका अर्थ - नवभेद प्रायश्चित्तके, च्यारि भेद विनयके, दश भेद वैयावृत्यके, पांच भेद स्वाध्यायके, दोय भेद व्युत्सर्गके ऐसें अनुक्रमतें जानने । ए ध्यानतें पहले पांच तपके भेद हैं । इहां यथाक्रमवचनतैं प्रायश्चित्त नवभेद है इत्यादि जानना । बहुरि प्राग्ध्यानात् इस वचनतें ध्यान के भेद बहुत हैं । तें आगे कहसी ऐसा जानना ॥ आगे आदिका प्रायश्चित्ततपके नव भेद कहे, For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824