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|| सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७१३ ॥
कहिये दूसरा जो अभ्यंतर तप ताके भेद हैं । इनकै अभ्यंतरपणा कैसें है ? सो कहै हैं । ए तप अन्यमतिनिकरि नाहीं कीजिये हैं । तथा मनकूंही अवलंब्यकरि इनका प्रवर्तन है। तथा बाह्यद्रव्यकी अपेक्षा इनमें प्रधान नाहीं है, तातैं इनकै अभ्यंतरपणा है । तहां प्रमादके वशर्तें व्रतमें दोष उपजै ताके मेटनें करिये सो तौ प्रायश्चित्त है ॥ १ ॥ पूज्य पुरुषनिका आदर करना, सो विनय है || २ || कायकी चेष्टाकार तथा अन्यद्रव्यकरि जो उपासना टहल करना, सो वैयावृत्य है || ३ || ज्ञानभावनाविषै आलस्यका त्याग, सो स्वाध्याय है ॥ ४ ॥ परद्रव्य के विषै यह मै हूं यह मेरा है ऐसा संकल्पका त्याग, सो व्युत्सर्ग है ॥ ५ ॥ चित्तका विक्षेप चलाचलपनेका त्याग, सो ध्यान है ॥ ६ ॥ ऐसें छह अभ्यंतर तप हैं | आगे इन तपनिके भेद कहने कूं सूत्र कहै हैं॥ नवचतुर्दशपंचाद्विभेदा यथाक्रमं प्राग्ध्यानात् ॥ २१ ॥
याका अर्थ - नवभेद प्रायश्चित्तके, च्यारि भेद विनयके, दश भेद वैयावृत्यके, पांच भेद स्वाध्यायके, दोय भेद व्युत्सर्गके ऐसें अनुक्रमतें जानने । ए ध्यानतें पहले पांच तपके भेद हैं । इहां यथाक्रमवचनतैं प्रायश्चित्त नवभेद है इत्यादि जानना । बहुरि प्राग्ध्यानात् इस वचनतें ध्यान के भेद बहुत हैं । तें आगे कहसी ऐसा जानना ॥ आगे आदिका प्रायश्चित्ततपके नव भेद कहे,
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